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सत्य का सबसे बुरा शत्रु

तर्क-शास्त्र का कार्य एक विचार से दूसरे विचार पर और एक तथ्य से उसके परिणामों पर सही निष्कर्ष से पहुंचना है। किन्तु स्वयं इसके अन्दर सत्य को पहचान सकने की योग्यता नहीं होती। अतएव, तुम्हारा तर्कशास्त्र निर्विवाद तो हो सकता है, किन्तु यदि तुम्हारा प्रारम्भिक बिन्दु गलत हुआ तो तुम्हारा निष्कर्ष भी गलत होगा, चाहे तुम्हारा तर्क बिलकुल यथार्थ क्यों न हो, बल्कि अपनी यथार्थता के कारण ही वह गलत होगा। यही बात उस धार्मिकता के साथ भी है जो धार्मिक श्रेष्ठता की ही एक भावना होती है।

तुम्हारी श्रेष्ठता तुम्हें दूसरों के लिए घृणा सिखाती है। और तुम्हारा यह अभिमान, जो तुम्हें दूसरों के प्रति घृणा से भर देता है क्योंकि वे तुम्हारी दृष्टि में तुमसे कम गुणवान् हैं-तुम्हारी श्रेष्ठता के समस्त मूल्य को नष्ट कर देता है।

इसीलिए श्रीअरविन्द हमें अपने सूत्र में बताते हैं कि तर्क-शास्त्र सत्य का उसी प्रकार सबसे बुरा शत्रु है जिस प्रकार धार्मिक श्रेष्ठता की भावना सदाचार की सबसे बड़ी शत्रु है।

संदर्भ : विचार और सूत्र के संदर्भ में 

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