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श्रीमाँ के श्री चरण

मेज़ पर बैठी लिख रही हूं । बिलकुल सामने माँ के श्रीचरण हैं । देखते -देखते मन अपार्थिव आनंद से भर उठा। याद आया – किस तरह माँ के श्रीचरण प्राप्त हुए थे । प्रतिवर्ष जन्मदिन मनाने से पहले श्री माँ पूछती थी, “क्या चाहिये?” आश्चर्य की बात है ठीक उसी समय कोई इच्छा नहीं रहती थी । किसी तरह से कुछ भी मन में नहीं आता था । सीढ़ी से नीचे आने पर मन में आता कि अगले जन्मदिन पर माँ के श्रीचरण की एक फोटो मांग लूँगी । किन्तु हर वर्ष वही पुनरावृत्ति होती – अर्थात उस समय सब भूल जाती ।

“क्या चाहिये” सुनने मात्र से ही सब विस्मृति के अटल में डूब जाता । क्यों ऐसा होता था, मैं नहीं जानती । ऐसा लगता था मेरी कुछ भी इच्छा या चाह नहीं है ।

सन १९७२ मेँ मैंने माँ के चरणों मेँ अंतिम बार प्रणाम किया । यथारीति प्रणाम करके, माँ से आशीर्वाद-पुष्प लेकर जब लौट रही थी तब अचानक चम्पकलाल जी ने मुझे आवाज़ लगायी, ” प्रीति ! माँ तुम्हें बुला रही है । ” मैं जल्दी से दरवाजे के पास से माँ के पास आयी । अभी मैं  बैठ ही रही थी कि चम्पकलाल जी ने माँ के हाथ मेँ एक रंगीन श्रीचरण की फोटो दी और माँ ने मधुर भाव से हँसते हुए वह फोटो मुझे दे दी ।

 

मैं तो हैरान रह गयी । आनंद से भर गयी । सोचने लगी – ऐसा भी संभव है क्या ? माँ ने आज मेरी इतने वर्षों की आकांशा पूरी कर दी !! माँ को पुनः प्रणाम किया , मन ही मन बोली –

“निरखा, प्राण निछावर हो गये

चेरी भई श्रीचरणन की ।”

 

धीर, शांत भाव से लौट आयी । सीढ़ी से नीचे उतरते – उतरते मन मेँ रही थी – कैसा आश्चर्य ! इतने वर्षों की मेरी आकांक्षा आज कैसे पूर्ण हुई ! कृतज्ञता से मन का कोना – कोना भर उठा ।

जहां (नीचे) अब माँ की शैया है, वहाँ काफी देर तक चुपचाप बैठी रही । तब मैं क्या जानती थी कि एक वर्ष के बाद इसी स्थान पर माँ का शरीर ऊपर से लाकर रखा जायेगा, और माँ के पास यह मेरा अंतिम जाना हुआ है । शायद इसी कारण माँ ने श्रीचरण देकर मेरी इतने दिनों की अभिलाषा पूर्ण की ।

 

संदर्भ : अविस्मरणीय वे क्षण ( प्रीति दास गुप्ता )

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