११ अप्रैल १९७३
. . . माँ, दर्शन के लिए आपको हमें एक संदेश देना है (२४ अप्रैल का दर्शन) ।
( मौन के बाद )
मेरे पास जो आया वह यह है :
मानव चेतना के परे
वाणी के परे
हे तू, ‘परम चेतना’
‘अद्वितीय वास्तविकता’
‘निर्विकार सत्य’ . . .
(कुछ रुक कर श्रीमाँ कहती हैं)
‘परम सत्य’ ।
संदर्भ : श्रीमाँ का एजेंडा (भाग-१३)
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…