तुम सोचते हो कि तुम्हें जो पाठशाला भेजा जाता है और तुमसे जो वहाँ अभ्यास करवाये जाते हैं, यह सब तुम्हें तंग करने में मज़ा लेने के लिए है? नहीं! नहीं, यह इसलिए है कि तुम्हारे लिए यह अनिवार्य है कि तम्हारे पास एक ऐसा साँचा हो जिसमें तुम अपने-आपको आकार देना सीख सको। अगर तुम व्यष्टीकरण का, पूर्ण निर्माण का काम अपने-आप, अकेले. एक कोने में करो तो तुमसे कोई माँग न की जायेगी। लेकिन तुम ऐसा नहीं करते, करोगे भी नहीं, एक भी बच्चा नहीं है जो ऐसा करे, उसे यह मालूम तक न होगा कि यह कैसे किया जाये, कहाँ से शुरू किया जाये। अगर तुम किसी बच्चे को जीना नहीं सिखाओ तो वह जी भी न सकेगा, वह कुछ भी करना न जानेगा, कुछ भी नहीं। मैं अप्रिय ब्योरों की बात नहीं करना चाहती, लेकिन अगर हम बच्चे को न सिखायें तो वह बिलकुल प्रारम्भिक चीज़े भी ठीक ढंग से न कर सकेगा। परिणामस्वरूप तुम एक-एक पग…। कहने का मतलब यह है कि अगर व्यष्टि-सत्ता की संरचना के लिए हर एक को सारी अनुभूति दोहरानी पड़े तो जीना शुरू करने से बहुत पहले ही वह मर चुका होगा! यही उन लोगों की देन है।
जिनके पास-सदियों से सञ्चित-अनुभूतियाँ हैं और जो तुमसे कहते हैं, “अच्छा, तो अगर तुम जल्दी बढ़ना चाहो, कुछ ही वर्षों में वह जानना चाहो
जिसे सीखने में सदियाँ लग गयीं, तो ऐसा करो।” पढ़ो, सीखो. अध्ययन करो और फिर, भौतिक क्षेत्र में, तुम्हें इस चीज़ को इस तरह से, उसको उस तरह से, उसे उस तरह से करना सिखाया जायेगा (मुद्राएँ)। यदि एक बार तुम थोड़ा-सा जान लो, फिर यदि तुम्हारे अन्दर प्रतिभा होगी तो तुम अपनी पद्धति ढूँढ सकोगे, लेकिन पहले तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा होना और चलना सीखना होगा। अपने-आप सीखना बहत कठिन है। सबके लिए यही बात है। अपने-आपको गढ़ना होगा। परिणामस्वरूप, शिक्षा की ज़रूरत होती है। तो, ऐसा है!
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५४
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