माताजी की उपस्थिति हमेशा रहती ही है; पर तुम यदि स्वयं अपने ही ढंग से अपनी निजी भावना, वस्तुओं के विषय में अपनी निजी धारणा, वस्तुओं के प्रति अपनी निजी इच्छा और मांग के अनुसार कार्य करने का निश्चय करो तो यह बिलकुल संभव है कि उनकी उपस्थिति आच्छादित हो जाये; वास्तव में स्वयं वे तुम्हारे पास से अलग नहीं हट जातीं, बल्कि तुम्ही उनके पास से पीछे चले जाते हो। पर तुम्हारा मन और प्राण इसे स्वीकार नहीं करना चाहते. क्योंकि अपनी ही गतियों का समर्थन करना बराबर ही उनका अपना पेशा रहा है। और चैत्य पुरुष को उसका पूर्ण अधिकार दे दिया गया होता तो ऐसा न होता; उसने आच्छादन का अनुभव किया होता, बल्कि उसने तुरत यह कहा होता, “अवश्य मेरे अंदर ही कोई भूल रही होगी, मेरे अंदर कुहासा उत्पन्न हो गया है,” और उसने कारण को खोजा और पा लिया होता।
२५-३-१९३२
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