जो विफलता और अपूर्णता की निंदा करता है वह भगवान की निंदा कर रहा है; वह अपनी ही आत्मा को सीमाबद्ध करता और अपनी ही अंतदृष्टि को धोखा देता है। निंदा न करो, पर ‘प्रकृति’ का अवलोकन करो, अपने भाइयों की सहायता तथा उन्हें रोगमुक्त करो और अपनी सहानुभूति द्वारा उनकी क्षमताओं और साहस को दृढ़ बनाओ।
संदर्भ : श्रीअरविंद (खण्ड-१७)
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…