जो विफलता और अपूर्णता की निंदा करता है वह भगवान की निंदा कर रहा है; वह अपनी ही आत्मा को सीमाबद्ध करता और अपनी ही अंतदृष्टि को धोखा देता है। निंदा न करो, पर ‘प्रकृति’ का अवलोकन करो, अपने भाइयों की सहायता तथा उन्हें रोगमुक्त करो और अपनी सहानुभूति द्वारा उनकी क्षमताओं और साहस को दृढ़ बनाओ।

संदर्भ : श्रीअरविंद (खण्ड-१७)

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