मेरे निर्जन कारावास के समय डाक्टर डैली और सहकारी सुपरिंटेंडेंट साहब प्रायः हर रोज़ मेरे कमरे में आ दो-चार बातें कर जाते। पता नहीं क्यों, मैं शुरू से ही उनका विशेष अनुग्रह और सहानुभूति पा सका था। मैं उनके साथ कोई विशेष बात न करता, वे जो पूछते उसका उत्तर-भर दे देता। वे जो विषय उठाते वह या तो चुपचाप सुनता या केवल दो-एक सामान्य बात कह चुप हो जाता। तथापि वे मेरे पास आना न छोड़ते। एक दिन डैली साहब ने मुझसे कहा कि मैंने सहकारी सुपरिटेंडेंट को कह कर बड़े साहब को मना लिया है कि तुम प्रतिदिन सवेरे-शाम डिक्री के सामने टहल सकोगे। तुम सारा दिन एक छोटी-सी कोठरी में बन्द रहो यह मझे अच्छा नहीं लगता, इससे मन ख़राब होता है और शरीर भी। उस दिन से मैं सवेरे-शाम डिक्री के आगे खुली जगह में घूमने लगा। शाम को दस, पन्द्रह, बीस मिनट घूमता, लेकिन सवेरे एक घण्टा, किसी-किसी दिन दो घण्टे तक बाहर रहता, समय की कोई पाबन्दी नहीं थी। यह समय बहुत अच्छा लगता। एक तरफ़ जेल का कारख़ाना, दूसरी तरफ़ गोहालघर मेरे स्वाधीन राज्य की दो सीमाएँ कारख़ाने से गोहालघर, गोहालघर से कारखाने तक घूमते-घूमते या तो उपनिषद के गंभीर, भावोद्दीपक, अक्षय शक्तिदायक मन्त्रों की आवृत्ति करता या फिर कैदियों का कार्यकलाप और यातायात देख ‘सर्वघट में नारायण हैं’ इस मूल सत्य को उपलब्ध करने की चेष्टा करता। वृक्ष, गृह, प्राचीर, मनुष्य, पशु, पक्षी, धातु और मिट्टी में, सर्वभूतों में ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ मन्त्र का मन-ही-मन उच्चारण कर इस उपलब्धि को आरोपित करता। यह करते-करते ऐसा भाव हो जाता कि कारागार और कारागार न लगता। वह उच्च प्राचीर, वह लौह कपाट, वह सफ़ेद दीवार, वह सूर्य-रश्मि-दीप्त, नील-पत्र शोभित वृक्ष, वह छोटा-मोटा सामान मानों अब अचेतन नहीं रहा, सर्वव्यापी, चैतन्यपूर्ण हो सजीव हो उठा, ऐसा लगता कि वे मुझसे स्नेह करते हैं, मुझे आलिंगन में भर लेना चाहते हैं। मनुष्य, गो, चीटी और विहंग चल रहे हैं, उड़ रहे हैं, गा रहे हैं, बातें कर रहे हैं, पर है यह सब प्रकृति की क्रीड़ा; भीतर एक महान् निर्मल, निलिप्त आत्मा शान्तिमय आनन्द में निमग्न हो विराजमान है। कभी-कभी ऐसा अनुभव होता मानों भगवान् उस वृक्ष के नीचे खड़े आनन्द की वंशी बजा रहे हैं, और उस माधुर्य से मेरा हृदय मोह ले रहे हैं। सदा यह एहसास होने लगा कि कोई मुझे आलिंगन में भर रहा है, कोई मुझे
गोद में लिये हुए है। इस भावस्फुटन से मेरे सारे मन-प्राण को अधिकृत कर एक निर्मल महती शान्ति विराजने लगी, उसका वर्णन नहीं किया जा
सकता। प्राणों का कठिन आवरण खुल गया और सभी जीवों पर प्रेम का स्रोत उमड़ पड़ा। प्रेम के साथ दया, करुणा, अहिंसा इत्यादि सात्त्विक भाव
मेरे रजःप्रधान स्वभाव को अभिभूत कर और अधिक पनपने लगे। और जैसे-जैसे वे बढ़ने लगे वैसे-वैसे आनन्द भी बढ़ा एवं निर्मल शान्तिभाव गभीर हुआ। मुक़द्दमे की दुश्चिन्ता पहले ही दूर हो गयी थी, अब उससे उलटा विचार मन में आया। भगवान् मंगलमय हैं, मेरे मंगल के लिए ही मुझे कारागृह में लाये हैं, कारामुक्ति और अभियोग-खण्डन अवश्य ही होगा यह दृढ़ विश्वास जम गया। इसके बाद बहुत दिनों तक मुझे जेल में कोई भी कष्ट भोगना नहीं पड़ा।
संदर्भ : कारावास की कहानी
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