इस योग में सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि तुम प्रभाव के प्रति खुल सकते हो या नहीं। अगर तुम्हारी अभीप्सा में सच्चाई है और सभी संकटों के बावजूद तुम्हारे अन्दर उच्चतर चेतना तक पहुँचने का धीरज है, तो एक या दूसरे रूप में उद्घाटन होकर रहेगा। लेकिन मन, हृदय तथा शरीर की प्रस्तुति या अप्रस्तुति के अनुसार कम या ज़्यादा समय लग सकता है। इसलिए अगर तुम्हारे अन्दर आवश्यक धीरज न हो तो हो सकता है कि शुरू में ही तुम प्रयास छोड़ बैठो। इस योग में इसके अलावा और कोई तरीका नहीं है कि तुम एकाग्र होओ, ज़्यादा अच्छा है कि हृदय में एकाग्र होओ और माँ की उपस्थिति तथा उनकी शक्ति को पुकारो कि वे तुम्हारी सत्ता को अपने हाथों में ले कर, उस पर अपनी शक्ति की क्रिया कर, तुम्हारी चेतना का रूपान्तरण कर दें; तुम सिर में या भौहों के बीच भी एकाग्र हो सकते हो, लेकिन बहुतों के लिए यह उद्घाटन बहुत कठिन होता है। जब मन शान्त हो जाता है और एकाग्रता प्रबल तथा अभीप्सा तीव्र, तब अनुभूतियाँ आनी शुरू हो जाती हैं। अभीप्सा जितनी अधिक हो, परिणाम उतनी तेज़ी से आयेंगे। बाकी सब चीज़ों के लिए तुम्हें केवल अपने प्रयासों पर निर्भर नहीं रहना है, बल्कि बस ‘प्रभु’ के साथ दृढ़ सम्पर्क बनाना तथा माँ की ‘शक्ति’ तथा ‘उपस्थिति’ के प्रति ग्रहणशील होना है।

संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र (भाग-२)

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