यदि जो होने वाला है उसकी परिस्थिति में तुम अपने लिए अधिक-से-अधिक सम्भव ऊंची मनोवृत्ति अपना सको अर्थात्, यदि तुम अपनी चेतना को अपनी पहुंच की उच्चतम चेतना के सम्पर्क में ला सको तो तुम पूरी तरह निश्चित हो सकते हो कि उस स्थिति में तुम्हारे लिए जो हो सकता है वह सर्वोत्तम होगा। लेकिन जैसे ही तुम उस चेतना से निचले स्तर पर गिर पड़ो वैसे ही जो होगा वह स्पष्टतः अच्छे-से-अच्छा न होगा और कारण स्पष्ट है-
तुम अपनी अच्छी-से-अच्छी चेतना में नहीं हो…। मैं निश्चयपूर्वक यहां तक कह सकती हैं कि हर एक के तात्कालिक प्रभाव के क्षेत्र में उचित मनोवृत्ति में इतनी शक्ति होती है कि वह हर परिस्थिति को लाभदायक बना सके, इतना ही नहीं, वह स्वयं परिस्थिति को बदल तक सकती है। उदाहरण के लिए, अगर कोई तुम्हें मारने आये, उस समय तुम यदि साधारण चेतना में रहो और डर कर होश-हवास खो बैठो तो सम्भवतः वह जो कुछ करने के लिए आया है उसमें सफल हो जायेगा; अगर तुम जरा ऊपर उठ सको और डर से भरे होते हुए भी भागवत सहायता को बुलाओ तो वह जरा-सा चूक जायेगा या तुम्हें जरा-सी चोट ही पहुंचा पायेगा; लेकिन अगर तुम्हारे अन्दर उचित मनोवृत्ति हो और तुम्हारे चारों ओर हर जगह भागवत उपस्थिति की पूरी चेतना हो तो वह तुम्हारे विरुद्ध उंगली भी न उठा सकेगा। यह सत्य रूपान्तर की सारी समस्या की ठीक चाबी हैं। हमेशा भागवत उपस्थिति के साथ सम्बन्ध बनाये रखो, उसे नीचे उतारने की कोशिश करो तो हमेशा अच्छे-से-अच्छी चीज ही होगी। पर हां, सारा जगत् एकदम नहीं बदल जायेगा, लेकिन वह जितनी तेजी कर सकता है उतनी तेजी से आगे बढ़ेगा।…
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर (१९२९-१९३१)
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