मैं और श्रीमाँ एक और समान हैं। और साथ ही वे यहाँ परमा हैं और उनका अधिकार है कि वे कार्य के लिए जो उत्तम समझती हैं उस तरह कार्य की व्यवस्था करें। वे जो भी कार्य दे उस पर किसी को अपना अधिकार जमाने, किसी भी तरह का दावा करने या अपना स्वामित्व जताने का हक़ नहीं। आश्रम माँ की सृष्टि है और उनके बिना इसका कभी अस्तित्व नहीं होता। वे जो कार्य कर रही हैं वह उनका अपना सृजन है, उन्हें वह दिया नहीं गया है और उनसे वह लिया नहीं जा सकता। अगर तुम्हारे अंदर श्रीमाँ के साथ उचित सम्बंध बनाने और उनके प्रति उचित मनोवृत्ति रखने की इच्छा है तो इस प्राथमिक और मूलभूत सत्य को समझने का प्रयास करो।
संदर्भ : माताजी के विषय में
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…