क्या ऐसे चिन्ह है जो यह बतलाते हैं कि मनुष्य इस पथ के लिए तैयार हो गया है, विशेषकर जब उसे आध्यात्मिक गुरु न प्राप्त हो?
हां, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण लक्षण है सभी परिस्थितियों में आत्मा की पूर्ण समता का होना। यह पूर्णतः अनिवार्य आधार है; यह बहुत स्थिर, अचञ्चल, शान्तिपूर्ण वस्तु है, महान् शक्ति का बोध है। वह स्थिरता नहीं जो तामसिकता से आती है बल्कि एक एकाग्रीभूत शक्ति-सामर्थ्य का बोध जो तुम्हें सर्वदा अटल बनाये रखता है, चाहे जो कुछ भी क्यों न घटित हो, यहां तक कि ऐसी परिस्थितियों के अन्दर भी जो तुम्हें अपने जीवन में अत्यन्त भयानक प्रतीत होती हैं। बस, यही है पहला चिह्न।
दूसरा चिह्न है: तुम अपनी साधारण स्वाभाविक चेतना में पूर्णतः कारारुद्ध अनुभव करते हो, जैसे कि किसी अत्यन्त कठोर वस्तु में, दम घोंटने वाली और असह्य वस्तुओं में तुम अवरुद्ध होओ, ऐसा लगता है मानों तुम्हें किसी लोह दीवाल में छिद्र बनाना पड़ रहा हो। और यन्त्रणा लगभग असह्य हो उठती है, गला घोंटने जैसा महसूस होता है; तोड़ कर निकल जाने का एक आन्तरिक प्रयास होता है और तुम तोड़ कर निकल नहीं पाते। यह भी पहले चिह्नों में से एक है। इसका तात्पर्य है कि तुम्हारी आन्तरिक चेतना एक ऐसे बिन्दु पर पहुंच गयी है जहां उसका बाहरी ढांचा उसके लिए अत्यधिक तंग हो गया है-साधारण जीवन, साधारण क्रिया-कलापों, साधारण सम्बन्धों का वह ढांचा, इतना छोटा, इतना तुच्छ हो गया है कि तुम अपने अन्दर उसे तोड़ देने की एक शक्ति अनुभव करते हो।
एक और दूसरा चिह्न भी है : जब तुम एकाग्र होते हो और एक अभीप्सा तुम्हारे अन्दर होती है तो तुम… एक प्रकार की ज्योति, शान्ति, शक्ति को नीचे आते हुए अनुभव करते हो; और लगभग तुरन्त एक आन्तरिक अभीप्सा, एक पुकार उठती है, और प्रत्युत्तर आ जाता है। इसका भी यही मतलब है कि सम्बन्ध अच्छी तरह स्थापित हो गया है।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५०-१९५१
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